अष्टाध्यायी में छः प्रकार के सूत्र पाए जाते हैं।
संज्ञा च परिभाषा च विधिर्नियम एव च।
अतिदेशोऽधिकारश्च षड्विधं सूत्रलक्षणम्॥
इस श्लोक के अनुसार अष्टाध्यायी में पाए जाने वाले सूत्रों के प्रकार
- संज्ञा सूत्र
- परिभाषा सूत्र
- विधि सूत्र
- नियम सूत्र
- अतिदेश सूत्र
- अधिकार सूत्र
अब हम क्रमशः इन सूत्रों के बारे में पढ़ेगे।
संज्ञा सूत्र
नामकरणं संज्ञा
जिस सूत्र से किसी चीज का कोई एक विशिष्ट नाम रखा जाता है, उस सूत्र को संज्ञासूत्र कहते हैं।
संज्ञासूत्र के उदाहरण
वृद्धिरादैच्
जैसे कि हम जानते हैं कि इस सूत्र के अनुसार आ, ऐ तथा औ इन तीनों स्वरों को वृद्धि कहा जाता है। अर्थात् इन तीनों स्वरों का नाम रखा गया है – वृद्धि।
चूँकि इस सूत्र ने आ, ऐ तथा औ इन तीनों सूत्रों का नया नामकरण किया है, अतः यह एक संज्ञासूत्र है।
मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः
मुख तथा नासिका इन दोनों जगहों से जिस वर्ण का उच्चारण होता है, उसे अनुनासिक कहते हैं।
इस सूत्र की वजह से ङ्। ञ्। ण्। न्। म् आदि वर्णों को अनुनासिक कहा जा सकता है। अतः यह एक संज्ञासूत्र है।
परिभाषा सूत्र
अनियमे नियमकारिणी परिभाषा
जब अनियम होता है, तब हमारे लिए नियम बनानेवाली होती है परिभाषा।
अर्थात् अष्टाध्यायी के सूत्रों के उपयोग से हम जो भी प्रक्रिया करते हैं, उस प्रक्रिया में बहुत बार संभ्रम की परिस्थिति निर्माण हो जाती है। तो ऐसी संभ्रम की परिस्थिति में परिभाषा सूत्र आकर हमारी मदद करता है। और हमें निश्चित रास्ता दिखाकर मार्गदर्शन करता है।
परिभाषा सूत्र का उदाहरण
स्थानेऽन्तरतमः
यह एक प्रसिद्ध उदाहरण है। प्रायः कौमुदीक्रम से सीखनेवाले छात्र सबसे पहले इस ही परिभाषा सूत्र को सीखते हैं।
इको यणचि इस सूत्र की मदद से सुधी + उपास्य इस प्रक्रिया करने के दरम्यान ई के स्थान पर य्, र्, ल् और व् ये चार आदेश बैठने के लिए आते हैं। यानी जगह एक और एक जगह पर बैठने के लिए चार लोगों का आना।
यह अनियम है। एक स्थान पर चार वर्ण नहीं बैठ सकते। इस दुविधा से सही रास्ता दिखाकर बाहर निकालने के लिए स्थानेऽन्तरतमः यह सूत्र आता है। और हम बताता है कि हमें य्, र्, ल् और व् इन चारों में से किसे बैठाना है। इस सूत्र ने हमें एक परिभाषा कर दी है कि
यदि एक स्थानी के की जगह पर अनेक आदेश बैठने के लिए आते हैं, तो जो आदेश अन्तरतम होता है, वह आदेश ही स्थानी की जगह पर बैठने लायक होता है।
स्थानेऽन्तरतमः इस सूत्र के द्वारा निर्मित परिभाषा की वजह से हम निर्णय कर सकते हैं कि सुधी + उपास्य इस स्थिति में ई के स्थान पर यणादेश होने के बाद ई की जगह पर बैठने का अधिकार य्, र्, ल् और व् इन चारों में से केवल य् को प्राप्त होता है और सुध्युपास्य ऐसा अन्तिम उत्तर हमें मिल जाता है। यहां स्थानेऽन्तरतमः इस सूत्र ने अनियम की स्थिति में नियम बता कर हमारा मार्ग प्रशस्त किया है। अतः यह एक परिभाषा सूत्र है।
विधि सूत्र
कर्तव्यत्वोनोपदेशो विधिः।
कर्तव्य का उपदेश करने वाला सूत्र विधिसूत्र होता है। अर्थात् जो सूत्र कोई कार्य करने को कहता है, जैसे कि – किसी वर्ण को हटाना, वह विधि सूत्र कहलाता है।
विधिसूत्र का उदाहरण
तस्य लोपः।
उपदेशेऽजनुनासिक इत् से ले कर लशक्वतद्धिते इस सूत्र तक अष्टाध्यायी में इत् किसे कहना चाहिए? इस बारे में बताया गया है। अर्थात् ये सारे संज्ञासूत्र हैं। और इसके बाद तस्य लोपः यह सूत्र आता है और जिसे जिसे इत् कहा, उन सभी का लोप कर देता है।
अर्थात् तस्य लोपः इस सूत्र ने एक ठोस काम किया इत् का लोप करने का। इसीलिए तस्य लोपः यह एक विधिसूत्र है।
इको यणचि।
इस सूत्र ने इक् के परे अच् रहने पर; इक् के स्थान पर यण् यह आदेश किया। यह भी एक ठोस काम है। अतः इको यणचि एक विधिसूत्र है।
नियम सूत्र
बहुत्र प्राप्तौ संकोचनं नियमः।
किसी एक सूत्र की व्याप्ति यदि बहुत सारी जगह पर होती हो, और उस किसी सूत्र से रोक कर संकुचित (सीमित) किया जाए तो उस सूत्र को नियम सूत्र कहते हैं।
नियम सूत्र का उदाहरण
नाज्झलौ
तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णं। यह एक सूत्र संज्ञासूत्र है। यह बताता है कि जिन वर्णों का मौखिक उच्चारण का प्रयत्न समान होता है, वे सवर्ण कहलाते है। लेकिन नाज्झलौ यह सूत्र बताता है कि भलेही स्वर और व्यंजनों का मौखिक उच्चारण प्रयत्न समान हो, तथापि उनकी सवर्णसंज्ञा नहीं होती है।
अर्थात् नाज्झलौ इस सूत्र ने तुल्यास्यप्रत्नं सवर्णम्। इस संज्ञासूत्र की व्याप्ति को संकुचित (सीमित) किया है। अतः यह एक नियमसूत्र है।
अतिदेश सूत्र
जो जैसा नहीं है उसे वैसा बनाने के का काम अतिदेश सूत्र करते हैं।
जैसे कि हम ने महाभारत में पढ़ा है कि युधिष्ठिर कभी भी झूठ नहीं बोलते थे। इसीलिए उन पर सब भरोसा करते थे। यहाँ तक की उनके शत्रु दुर्योधन तक युधिष्ठिर पर भरोसा करते थे। तथापि भारतीय युद्ध के दरम्यान एक समय ऐसा आया कि श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को थोड़े से समय के लिए झूठा बनाया था। युधिष्ठिर ने वह प्रसिद्ध झूठ बोला – अश्वत्थामा हतः। परन्तु उनसे रहा नहीं गया और उन्हों ने आग यह भी बोला – नरो वा कुञ्जरो वा। जिससेहमें यह एक प्रसिद्ध कहावत भी मिल गई।
ठीक ऐसा ही काम अतिदेश सूत्र करते हैं।
अतिदेश सूत्र का उदाहरण
लोटो लङ्वत्।
यह सूत्र लोट् लकार को लङ् लकार जैसा बना देता है। और इसी की वजह से तस्थस्थमिपां तान्तन्तामः। (जिस सूत्र की प्रवृत्ति लङ् लकार में होती है) इस सूत्र की प्रवृत्ति लोट् लकार में भी होती है।
इस सूत्र ने लोट् लकार को लङ् लकार जैसा बनाया है। यानी जो काम लङ् लकार की प्रक्रिया में होता है वह लोट् में भी होने लगता है। इसीलिए लोटो लङ्वत् यह एक अतिदेश सूत्र है।
अधिकार सूत्र
उत्तरप्रकरणव्यापी अधिकारः।
अधिकारसूत्र को खुद का कोई महत्त्वपूर्ण अर्थ नहीं होता है, तथापि किसी अनुवृत्ति की तरह काम करके आगामी सूत्रों का मार्गदर्शन करता है। अधिकार सूत्र की व्याप्ति आगामी सम्पूर्ण अध्याय अथवा पाद तक हो सकती है।
अधिकारसूत्र का उदाहरण
संहितायाम्।
इस अधिकार सूत्र का मतलब है कि यहाँ से लेकर पारस्करप्रभृतीनि च संज्ञायाम्। इस सूत्र तक जो भी कार्य बताए गए हैं वे सब संहिता के रहते ही होगे। (संहिता किसे कहते हैं? – परः संनिकर्षः संहिता।)
इको यणचि आदि जो भी सन्धिसूत्र हैं वे सब इस अधिकार के अन्तर्गत ही आते हैं। यानी जब वर्णों की संहिता होगी तब भी इको यणचि आदि सन्धिसूत्र काम कर सकते हैं। अन्यथा नहीं।