शतृ प्रत्यय (ससूत्र अध्ययन)

इस लेख में हम शतृ प्रत्यय का ससूत्र अध्ययन (सूत्रों के साथ। यहाँ सूत्रों से हमारा तात्पर्य है पाणिनीय अष्टाध्यायी के सूत्र) कर रहे हैं। अतः यह लेख किंचित् विस्तृत होगा।

परन्तु यदि आप शतृ प्रत्यय का संक्षित्प और सरलता से अध्ययन करना चाहते हैं, तो इस लेख को पढ़िए, जिसमें शतृँ प्रत्यय को हम ने सरल रीति से समझाया है।

https://kakshakaumudi.in/प्रत्यय/कृदन्त/शतृ-शानच्/शतृ-प्रत्यय-सरल-अध्ययन

यदि आप अधिक जिज्ञासु हैं और शतृँ प्रत्यय का गहराई से अध्ययन करना चाहते हैं तो कृपया इस लेख को पढ़ना जारी रखे। अन्यथा आप उपर्युक्त लेख में शतृ प्रत्यय का सरल रीति से अध्ययन कर सकते हैं।

शतृ और शानच् इन दोनों प्रत्ययों का प्रयोग वर्तमान काल को व्यक्त करने के लिए होता है। वस्तुतः वर्तमान काल के लिए तो लट् लकार का प्रयोग करते हैं। तथापि हम लट् लकार को व्यक्त करने के लिए शतृ शानच् प्रत्ययों का भी प्रयोग कर सकते हैं।

एक और विशेष बात यह है कि शतृ और शानच् प्रत्ययों का प्रयोग भविष्यत् काल के लिए भी होता है। इस बात को अधिकांश लोग नहीं बताते हैं। लेकिन हम इस लेख में पढ़ेगे की किस प्रकार से शतृ और शानच प्रत्ययों का प्रयोग वर्तमान काल तथा भविष्यत् काल के लिए किया जाता है।

इस लेख में हम केवल शतृ प्रत्यय की चर्चा कर रहे हैं।

शतृ और शानच् में अन्तर

हालांकि शतृ और शानच् दोनों भी प्रत्ययों का अर्थ समान ही है, तथापि इन दोनों प्रत्ययों में किंचित् भेद है। और उन दोनों में भेद यह है कि दोनों का कार्यक्षेत्र भिन्न है।

शतृ प्रत्यय केवल परस्मैपदी धातुओं से होता है और शानच् प्रत्यय केवल आत्मनेपदी धातुओं से होता है। और जैसे कि हम जानते ही हैं कि कुछ धातु उभयपदी होते हैं, उन उभयपदी धातुओं से दोनों भी प्रत्यय हो सकते हैं।

इसे हम निम्न आकृति के द्वारा समझ सकते हैं।

यदि आप को यह बात समझ में नहीं आई, तो चिन्ता मत कीजिए। इस बात को नौका और गाड़ी के उदाहरण से समझते हैं।

हम जानते हैं कि नौका और गा़ड़ी का कार्य है यात्रा करना। परन्तु दोनों का कार्यक्षेत्र भिन्न है। नौका केवल जल में यात्रा कर सकती है। और गाड़ी केवल स्थल पर ही यात्रा कर सकती है। ठीक वैसे ही शतृ और शानच् इन दोनों प्रत्ययों का अर्थ तो समान है – वर्तमान काल (और भविष्यत् काल भी)। परन्तु दोनों का कार्यक्षेत्र भिन्न है। शतृप्रत्यय परस्मैपदी धातुओं से होता है। और शानच् प्रत्यय आत्मनेपदी धातुओं से होता है।

और उभयपदी धातुओँ से दोनों भी प्रत्यय हो सकते हैं।

Difference between Shatru and Shanach

शतृ प्रत्यय का अर्थ

पाणिनीय अष्टाध्यायी में शतृ प्रत्यय का अर्थ इस सूत्र से व्यक्त किया गया है। –

लटः शतृशानचावप्रथमासमानाधिकरणे

– इति अष्टाध्यायी (३।२।१२४॥)

इस सूत्र के अनुसार –

लट् के स्थान पर शतृ और शानच् ये दोनों आदेश होते हैं।

इस सूत्र से हमने समझा की जो अर्थ लट् लकार का है, वही अर्थ शतृ और शानच् ये दोनों प्रत्यय व्यक्त करते हैं। और वर्तमाने लट् ३।२।१२३॥ इस सूत्र के अनुसार लट् लकार का प्रयोग वर्तमान काल (Present tense) में होता है। यानी शतृ और शानच् इन दोनों प्रत्ययों का अर्थ भी वर्तमान काल ही है।

और इस सूत्र के अनुसार शतृ और शानच् प्रत्यय भविष्यत् काल (Future Tense) के लिए भी हैं –

लृटः सद्वा

– अष्टाध्यायी ३।३।१४॥

इन दोनों सूत्रों की मदद से हम कह सकते हैं कि शतृ और शानच् ये दोनों प्रत्यय लट् लकार के स्थान पर वर्तमान काल को व्यक्त करने के लिए होते हैं। तथैव लृट् लकार के समान भविष्यत् काल के लिए भी विकल्प से हो सकते हैं।

हम इस लेख में शतृ प्रत्यय की चर्चा कर रहे हैं। इसीलिए शतृ प्रत्यय से शुरुआत करते हैं। शानच् प्रत्यय के बारे में बाद में पढ़ेगे।

शतृ प्रत्यय की प्रक्रिया

चूँकि हम शतृ प्रत्यय के अर्थ को जानते हैं, अब इसे किसी धातु से कैसे लगाते हैं, इस का अध्ययन करते हैं। सबसे पहले बात करते हैं शतृ प्रत्यय के अनुबन्धलोप की।

अनुबन्धलोप

शतृ इस प्रत्यय में चार वर्ण हैं।

  • श् + अ + त् + ऋ

इन में ऋ यह स्वर वास्तव में अनुनासिक है। इसीलिए उसे ऐसे लिखा जाना चाहिे – ऋँ (यानी शतृँ)। परन्तु सामान्य लेखन में इसे शतृ ऐसे ही लिखते हैं। परन्तु हम अब से इस प्रत्यय को उसके मूल स्वरूप में ही लिखेंगे।

तो अब हमारा प्रत्यय है – शतृँ। इस में चार वर्ण हैं –

  • श् + अ + त् + ऋँ

इन में से श् और ऋँ इन दोनों वर्णों का लोप होता है।

  • श् + अ + त् + ऋँ

तो अब हमारे पास केवल दो वर्ण बचते हैं।

  • अ + त्

इन दोनों से मिल कर बनता है –

  • अत्

अर्थात् शतृँ प्रत्यय का अनुबन्धलोप हो कर केवल अत् इतना ही अंश बचता है।

ध्यान रखिए की भलेही हमारा प्रत्यय है – शतृँ। परन्तु जब भी हम किसी भी धातु से शतृँ इस प्रत्यय को प्रयुक्त करेंगे, तो केवल अत् इतना ही अंश हमे लगाना होता है। जैसे कि –

  • पठ् + शतृँ
  • पठ् + अत्

गणविकरणप्रत्यय

शतृँ और शानच् इन दोनों प्रत्ययों की  तिङ्शित् सार्वधातुकम् ३।४।११३॥ इस सूत्र से सार्वधातुक संज्ञा होती है।

इसका मतलब यह है कि धातु का गणविकरणप्रत्यय भी होगा। जैसे कि हम जानते ही हैं कि धातुओं के दस गण होते हैं। और दसों गणों के भिन्न भिन्न विकरण प्रत्यय होते हैं। जैसे कि –

१. पठ् यह धातु भ्वादि गण (१) का है। और भ्वादि गण का विकरण है – शप् (अ)। तो धातु और शतृँ प्रत्यय के बीच में अ यह विकरण प्रत्यय होता है।

  • पठ् + शतृँ
  • पठ् + अत्
  • पठ् + अ + अत्
    • पठ + अत्

२. नृत् यह धातु दिवादि गण (४) का है। और भ्वादि गण का विकरण है – श्यन् (य)। तो धातु और शतृँ प्रत्यय के बीच में य यह विकरण प्रत्यय होता है।

  • नृत् + शतृँ
  • नृत् + अत्
  • नृत् + य + अत्
    • नृत्य + अत्

शतृँ प्रत्यय में पररूप

कृपया इस स्थिति को देखिए।

  • पठ् + अ + अत्

यहाँ हम दो को देख सकते हैं – १) विकरण के रूप में उपस्थित अ। और २) शतृँ प्रत्यय के अत् वाला अ। इन दोनों में सवर्ण दीर्घ सन्धि हो सकता है। जैसे की –

  • पठ् + अ + अत्
  • पठ् + आत्
    • पठात्

परन्तु यहाँ ऐसा नहीं होता है। यहाँ अष्टाध्यायी से एक सूत्र आता है – अतो गुणे ६।१।९७॥

इस सूत्र का अर्थ है – अपदान्त अकार के बाद यदि गुण स्वर हो, तो दोनों के स्थान पर पररूप एकादेश होता है।

यदि आप इस सूत्र के अर्थ को नहीं समझ पा रहे हैं, तो चिन्ता मत कीजिए।

बस इतना समझ लीजिए कि शतृँ प्रत्यय की प्रक्रिया के दरम्यान अ + अ = आ ऐसा सवर्ण दीर्घ सन्धि नहीं होता है। अपितु यहाँ इस प्रकार से पररूप होता है – अ + अ = अ।

पर का मतलब होता है बाद में आनेवाला (यानी Next)। अर्थात् पहला अ और उसके बाद में आने वाला अ, इन दोनों के स्थान पर बाद में आनेवाला यह आदेश होता है।

ध्यान रखिए कि अतो गुणे यह सूत्र केवल अकारान्त विकरण के मामले में ही होता है। और अकारान्त विकारण केवल चार गणों में होता है –

  • भ्वादि गण (१) – अ
    • भू + शतृ – भवत्
    • पठ् + शतृ – पठत्
    • जि + शतृ – जयत्
  • दिवादि गण (२) – य
    • दिव् + शतृ – दिव्यत्
    • नृत् + शतृ – नृत्यत्
    • कुप् + शतृ – कुप्यत्
  • तुदादि गण (६) – अ
    • तुद् + शतृ – तुदत्
    • नुद् + शतृँ – नुदत्
    • लिख् + शतृ – लिखत्
  • चुरादि गण (१०) – अय
    • चुर् + शतृ – चोरयत्
    • तड् + शतृ – ताडयत्
    • गण् + शतृ – गणयत्

बाकी जो गण हैं, जिन में विकरण अकारान्त नहीं है, उन में यह पररूप नहीं होता है। जैसे कि –

  • कृ + शतृँ
  • कुरु + अत्
    • कुर्वत्

यहाँ उ + अ ऐसा सीधे यण् सन्धि हुआ। यहाँ कुरु इस अंग के अन्त में अ नहीं था। यहाँ पूर्वोक्त पररूप नहीं होता है।

अब हम ने शतृँ प्रत्यय की प्रक्रिया के बारे में पर्याप्त जानकारी प्राप्त की है। अब कुछ उदाहरणों के द्वारा उपर्युक्त प्रक्रिया का अभ्यास करते हैं।

शतृँ प्रत्यय के उदाहरण

चूँकि हमने शतृँ प्रत्यय की प्रक्रिया समझ ली है, अब कुछ धातुओं को शतृँ प्रत्यय लगाकर शतृँ प्रत्यय का अध्ययन करेंगे।

पठ् धातु से शतृँ प्रत्यय

अब हम पठ् धातु के उदाहरण से शतृँ प्रत्यय का अध्ययन करेंगे।

  • पठ् + शतृँ

पठ् इस धातु से शतृँ प्रत्यय।

  • पठ् + अत्

शतृँ इस प्रत्यय का अनुबन्धलोप हो कर केवल अत् बचा।

  • पठ् + अ + अत्

पठ् यह धातु भ्वादि गण का है। इसीलिए यहाँ यह विकरण प्रत्यय हुआ।

  • पठ् + अ + अत्
  • पठ् + त्

यहाँ विकरण के अंत में अ होने की वजह से दोनों अ के स्थान पर अतो गुणे इस सूत्र से पररूप हुआ।

  • पठत्

इस प्रकार से हम ने पठ् धातु से शतृँ प्रत्यय लगाकर पठत् यह शत्रन्त (शतृ + अन्त – जिस के अंत में शतृ हो) बना लिया है।

भू धातु से शतृँ प्रत्यय

अब हम पठ् धातु के उदाहरण से शतृँ प्रत्यय का अध्ययन करेंगे।

  • भू + शतृँ

भू इस धातु से शतृँ प्रत्यय।

  • पठ् + अत्

शतृँ इस प्रत्यय का अनुबन्धलोप हो कर केवल अत् बचा।

  • भू + अ + अत्
  • भो + अ + अत्

पठ् यह धातु भ्वादि गण का है। इसीलिए यहाँ यह विकरण प्रत्यय हुआ। और भ्वादिगण में विकरण के साथ धातु को गुण भी होता है। इसीलिए भू का भो बना।

  • भो + अ + अत्
  • भो + त्

यहाँ विकरण के अंत में अ होने की वजह से दोनों अ के स्थान पर अतो गुणे इस सूत्र से पररूप हुआ।

  • भव् + अत्
  • भवत्

यहाँ अयादि सन्धि के अनुसार भो + अत् से भवत् यह रूप सिद्ध हुआ।

इस प्रकार से हम ने भू धातु से शतृँ प्रत्यय लगाकर भवत् यह शत्रन्त (शतृ + अन्त – जिस के अंत में शतृ हो) बना लिया है।

इसी तरीके से अन्य धातुओं के भी शत्रन्त रूप आप बना सकते हैं। जैसे कि –

  • चल् + शतृ – चलत्
  • नी + शतृ – नयत्
  • कथ् + शतृ – कथयत्
  • गम् + शतृ – गच्छत्
  • कृ + शतृ – कुर्वत्
  • लिख् + शतृ – लिखत्
  • ज्ञा + शतृ – जानत्

शतृ प्रत्यय के रूप

चूँकि शतृँ एक कृत् प्रत्यय (कृदन्त) है, इसीलिए कृत्तद्धितसमासाश्च १।२।४६॥ इस सूत्र के अनुसार शतृप्रत्ययान्त (शत्रन्त) के सभी विभक्तियाँ, वचन तथा लिंगों के अनुसार विभिन्न रूप बन सकते हैं। शतृ प्रत्यय के रूप निम्न प्रकार से बनते हैं।

हम उदाहरण के लिए गम् इस धातु को ले रहे हैं। गम् धातु को शतृँ प्रत्यय लगाकर गच्छत् यह शत्रन्त बनता है। इसके तीनों लिंगों में अलग रूप बनते हैं। पुँल्लिंग में – गच्छन्, स्त्रीलिंग में – गच्छन्ती और नपुंसकलिंग में गच्छत्

यहाँ हम कोष्टकों की मदद से शतृप्रत्ययान्त शब्दों के रूप दे रहे हैं। हम ने उदाहरण के लिए गच्छत् शह शत्रन्त शब्द लिया है। इस के हम क्रमशः पुँल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग में रूप देखेंगे। उन के अनुसार अन्य शब्दों के भी रूप बना सकते हैं।

गच्छत् शब्द के पुँल्लिंग रूप

विभक्ति२+
प्र॰गच्छन्गच्छन्तौ गच्छन्तः
द्वि॰गच्छन्तम् गच्छन्तौगच्छतः
तृ॰गच्छतागच्छद्भ्याम्गच्छद्भिः
च॰गच्छतेगच्छद्भ्याम्गच्छद्भ्यः
प॰गच्छतःगच्छद्भ्याम्गच्छद्भ्यः
ष॰गच्छतःगच्छतोःगच्छताम्
स॰गच्छतिगच्छतोःगच्छत्सु
सं॰गच्छन्गच्छन्तौगच्छन्तः
गच्छत् शब्द पुँल्लिंग रूप

गच्छत् शब्द के स्त्रीलिंग रूप

10 thoughts on “शतृ प्रत्यय (ससूत्र अध्ययन)”

  1. In the masculine gender in singular number and in prathamaavibhakti some satrantas end in t and some in n. How to know which is which?
    What is the rule and sootra? Please give a detailed reply.

    Reply
    • कोई भी शत्रन्त कभी भी पुँल्लिंग-प्रथमा में त् से अन्त नहीं होता है। यदि हो, तो कृपया उदाहरण दीजिए। हम जरूर उस की व्याख्या करने का प्रयास करेंगे।

      Reply
  2. Hari Om mahodaya
    अगर हमें संस्कृत में बोलना है –
    अभी जोर बारिश हो रही है
    तो क्या यह सही होगा
    इदानिम् तीव्रा वृष्टि : भवन् I
    धन्यवाद
    आनन्द्

    Reply
  3. शत्रन्त स्त्रीलिंगस्य पुटः न दृश्यते महोदय।

    Reply

Leave a Comment