संस्कृत वर्णमाला की लेखमाला में हमने इसस पूर्व एक लेख में स्वरों के बारे में बात की थी। अब स्वरों के बाद व्यंजनों की बारी आती है। स्वर और व्यंजन के बीच क्या अन्तर होता है इस बात को भी हमने स्वरों वाले लेख में ही विस्तार से बताया है। उस लेख पर जाने के लिए यहाँ क्लिक कीजिए।
हालांकि हिन्दी, मराठी, नेपाली तथा अन्य भाषाओं के लिए देवनागरी लिपि का ही प्रयोग किया जाता है। तथापि प्रत्येक भाषा की आवश्यकता के अनुसार वर्णमाला में कुछ अन्तर होता है। यहाँ हम संस्कृत वर्णमाला की दृष्टि से व्यंजनों का अध्ययन कर रहे हैं।
अब चूँकि हम अब स्वर और व्यंजनों के अन्तर को समझते हैं, तो अब व्यंजनों का अध्ययन आरम्भ करते हैं।
वैसे तो पाणिनीय व्याकरण में व्यञ्जनों का बहुत विस्तार से अध्ययन किया जाता है। तथापि हम केवल शालेय छात्रों की दृष्टि से व्यञ्जनों के देख रहे हैं। स्कूली छात्रों को जितना जानने की आवश्यकता होती है उतना यहा हम ले रहे हैं।
व्यंजन किसे कहते हैं?
व्यंजन की व्याख्या
उस ध्वनि को व्यंजन कहते हैं जिसका उच्चारण करने के लिए किसी स्वर की आवश्यकता होती है।

जैसे – क्
हम क् यह ध्वनि मुंह से नहीं निकाल सकते। हमें इसके लिए किसी स्वर की आवश्यकता होगी। फिर चाहे वह आगे हो या पीछे। जैसे –
- क् + अ – क
- अ + क् – अक्
व्यंजनों का उच्चारण करते समय हमारी जीभ मुंह के किसी ना किसी हिस्से से किंचित् रगड़ती है। हमारे मुंह से जो हवा बाहर आती है, उस हवा के मार्ग में मुंह में तालु, मूर्धा इ॰ अवयव कही ना कही रुकावट डालते हैं जो स्वरों के मामले में नहीं होती।
हलन्त किसे कहते हैं?
यदि आपको पता है कि हल् किसे कहते हैं, तो हलन्त इस शब्द का भी अर्थ आसानी से पता लगया जा सकता है।
व्यंजनों का दूसरा नाम – हल्
पाणिनीय व्याकरण में व्यञ्जनों को हल् कहते हैं। अर्थात् हल् यह व्यंजनों का दूसरा नाम है। बहुत बार छात्रों को प्रश्न पड़ता है किसी व्यंजन के नीचे जब हलन्त चिह्न (्) लगाते हैं, तो इस चिह्न को हलन्त चिह्न ऐसा ही क्यों कहते हैं?
देखिए यहाँ दो शब्द हैं –
- हल् + अन्त – हलन्त
जिस शब्द के अन्त में हल् (यानी व्यंजन) हो, उस शब्द को हलन्त शब्द कहते हैं।
व्यंजन कितने होते हैं?
संस्कृत वर्णमाला में व्यंजनों की संख्या कितनी होती है? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए चलिए क्रम से व्यंजनों को गिनते हैं।
वर्गीय व्यंजन – २५
वर्गीय व्यंजनों में पांच पांच व्यंजनों के पांच वर्गों को कुल मिलाकर पच्चीस (५x५=२५) व्यंजन होते हैं।
अवर्गीय व्यंजन – ८
अर्धस्वर और उष्मों को कुल मिलाकर आठ व्यंजन अवर्गीय होते हैं।
कुल मिलाकर देखा जाए तो –
व्यंजनों का प्रकार | संख्या |
---|---|
वर्गीय व्यंजन | २५ |
अवर्गीय व्यंजन | ०८ |
कुल | ३३ |
संस्कृत वर्णमाला में ळ
ज़्यादातर दाक्षिणात्य भाषाओं में ळ यह व्यंजन देखा जाता है। लेकिन जहा तक संस्कृत की बात करते हैं तो किंचित् सोचना पडता है।
वेद संस्कृत के प्राचीनतम साहित्य हैं। और ऋग्वेद की शुरआत में ही – ओ३म् अग्निमीळे पुरोहितम् …. इस तरह से पहले मन्त्र में ळ का प्रयोग (अर्थात्, बाद में भी बहुत बार) किया गया है। इस से हमे शंका होती है कि क्या संस्कृत वर्णमाला में ळ का समावेश है?
जैसे की हमने पहले ही स्पष्ट किया है कि यह लेख हम शालेय छात्रों के लिए लिख रहे हैं, तो शालेय दृष्टि से देखना पड़ेगा। देखिए संस्कृत के भी दो प्रकार हैं –
- वैदिक संस्कृत
- लौकिक संस्कृत
हम कह सकते हैं कि वैदिक (वेदों में प्रयुक्त) संस्कृत में ळ है। लेकिन बाद में जब लोक में संस्कृत भाषा का प्रयोग हुआ, तो उस लौकिक (लोक में प्रयुक्त) संस्कृत में ळ का प्रयोग नहीं है।
और हम जानते हैं कि विद्यालयों में तो वैदिक संस्कृत नहीं है। जो लोगों में बोली जाती है उसी लौकिक संस्कृत को पढ़ाया जाता है। और लौकिक संस्कृत में ळ के ना होने से हम शालेय स्तर पर कह सकते हैं कि संस्कृत वर्णमाला में ळ नहीं है।
इसीलिए संस्कृत वर्णमाला में व्यंजनों की संख्या ३३ है (जिसमें ळ नहीं गिनते हैं।)
व्यंजनों के प्रकार
विभन्न निकषों के अनुसार व्यंजनों के प्रकार किए जाते हैं।
अब हम इनका क्रम से अध्ययन करते हैं।
वर्गीय व्यंजन – अवर्गीय व्यंजन
वर्गीय व्यंजन
वस्तुतः हमारी संस्कृत वर्णमाला में तो स्वर और व्यंजन ऐसे दो विभाग साफ़ साफ़ दिखते ही है। उनमें से हम व्यंजनों को बारीकी से देखें तो व्यंजनों में भी दो हिस्से साफ़ दिखते हैं।

पहली पांच पंक्तियों में व्यंजन बिल्कुल ठीक ठाक एक एक कतार में पांच-पांच की संख्या में बैठे हुए दिखते हैं। जैसे कोई फौजी कवायत चल रही है। उनको ही वर्गीय व्यंजन कहते हैं।
हमने यदि वर्गीय व्यंजनों को ध्यान से देखा, तो वर्गीय व्यंजन ५ x ५ के आकार में दिखते हैं। अतः वर्गीय व्यंजनों में क् से लेकर म् तक कुल पच्चीस (२५) व्यंजन होते हैं।
१ | २ | ३ | ४ | ५ | |
१ | क् | ख् | ग् | घ् | ङ् |
२ | च् | छ् | ज् | झ् | ञ् |
३ | ट् | ठ् | ड् | ढ् | ण् |
४ | त् | थ् | द् | ध् | न् |
५ | प् | फ् | ब् | भ् | म् |
वर्गीय व्यंजनों को वर्गीय व्यंजन क्यों कहते हैं?
वर्गीय व्यंजनों में जो पांच कतारें दिखाई देती हैं उनके आदिवर्ण (शुरुवाती व्यंजन) के नाम से वर्गीय व्यंजनों के पांच वर्ग (ग्रूप) बनाए हैं।
जैसे कि इस पंक्ति को देखिए
क्। ख्। ग्। घ्। ङ्।
यह एक वर्ग (ग्रूप) है। और इसका आदिवर्ण (शुरुआती व्यंजन) है – क्। इसीलिए इस वर्ग को कवर्ग कहते हैं। ठीक इसी प्रकार से अन्य वर्ग भी बनाए गए हैं।
चूँकि ये पच्चीसों व्यंजन वर्गों में विभाजित है, इसीलिए इन सभी को वर्गीय व्यंजन कहते है। यानी वर्गों में विभाजित व्यंजन। अब इन सब को याद रखने के लिए बस इनके आदिवर्ण याद रखिए – कचटतप। इतने से ये पच्चीस व्यंजन स्मरण में रह सकते हैं।
अब यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है कि ये पच्चीस व्यंजन किसी ने अपने मन से ऐसे नहीं रखे हैं। इनके पीछे भी गहन विचार है। एक ख़ास वजह है। और वह है – उच्चारण स्थान।
इनकी रचना उच्चारण स्थानों के अनुसार है। इस आकृति में उच्चारण स्थानों को आप देख सकते हैं –

क-वर्ग
कवर्ग में – क्। ख्। ग्। घ्। ङ्॥ ये पांच व्यंजन आते हैं। इन सभी का उच्चारण स्थान कण्ठ है। यानी हमारा गला।
इन का उच्चारण करते समय हमारे गले में कंपन होता है। इसीलिए इनका उच्चारण स्थान कण्ठ है।
उच्चारण स्थान कण्ठ होने से इन पांचों को कण्ठ्य व्यंजन भी कहते हैं।
च-वर्ग
चवर्ग में – च्। छ्। ज्। झ्। ञ्॥ ये पांच व्यंजन आते हैं। इन सभी का उच्चारण स्थान तालु है। यानी हमारे दांतों के किंचित ऊपर जो खुरदरा हिस्सा हमारी जीभ को महसूस होता है वह तालु है। दांतों से जरा ऊपर (आकृति में देख कर) जीभ घुमाईए।
उच्चारण स्थान तालु होने से इन पांचों को तालव्य व्यंजन कहते हैं।
ट-वर्ग
टवर्ग में – ट्। ठ्। ड्। ढ्। ण्॥ ये पांच व्यंजन होते हैं। इनका उच्चारण स्थान मूर्धा है। हमने चवर्ग के विषय में तालु को देखा ही है, अब हमे अपनी जीभ को और ऊपर ले कर जाना है। यानी तालू से भी ऊपर। जीभ पूरी टेढ़ी हो जाती है। तालु से भी ऊपर जो मुलायम सा हिस्सा हमारी जीभ को महसूस होता है, वही मूर्धा है। टवर्ग के किसी भी व्यंजन का उच्चारण करने के लिए वही पर जीभ का स्पर्श करना पड़ता है।
उच्चारण स्थान मूर्धा होने से इनको मूर्धन्य व्यंजन कहते हैं।
त-वर्ग
तवर्ग में – त्। थ्। द्। ध्। न्॥ ये पांच व्यंजन हैं। उच्चारण स्थान दन्त है। दांतों से जीभ लगाकर इनका उच्चारण होता है।
उच्चारण स्थान दन्त होने से इनको दन्त्य व्यंजन कहते हैं।
प-वर्ग
पवर्ग में – प्। फ्। ब्। भ्। म्॥ ये व्यंजन हैं। इनका उच्चारण स्थान ओष्ठ है।
एक काम करके दिखाईए। अपने दोनों भी ओष्ठ दूर रखकर (यानी मिलाए बगैर) प्। फ्। ब्। भ्। म्। इन में से किसी का भी उच्चारण करके दिखाईए। नहीं हो सकता। अर्थात् इन व्यंजनों का उच्चारण करने के लिए दोनों ओष्ठों का मिलना ज़रूरी है। इसीलिए इनका उच्चारण स्था ओष्ठ माना गया है।
उच्चारण स्थान ओष्ठ होने से इनको ओष्ठ्य व्यंजन कहते हैं।
वर्गीय व्यंजनों की अधिक जानकारी के लिए इस वीडिओ को देखिए –
इस प्रकार हमने वर्गीय व्यंजनों में पांच वर्गों का अध्ययन किया। अब हम अवर्गीय व्यंजनों का अध्ययन करते हैं। अवर्गीय व्यंजन यानी ऐसे व्यंजन जिनका कोई वर्ग नहीं होता है।
अवर्गीय व्यंजन
जैसे कि हमनें वर्गीय व्यंजनों के विषय में देखा कि वे बिल्कुल अनुशासन में, ५x५ की कतार में बैठे हुए दिखते हैं। और इनके विपरीत इन के नीचें इधर-उधर बिखरे हुए दिखते हैं अवर्गीय व्यंजन। लेकिन ध्यान रखिए अवर्गीय व्यंजनों में भी एक प्रकार का अनुशासन है। वे भी अपनी अपनी विशेषताओं से अपने अपने स्थान पर बैठे हुए हैं। अवर्गीय व्यंजनों में दो प्रकार हैं –
- अन्तस्थः / अर्धस्वर
- उष्म
अन्तस्थ / अर्धस्वर
अन्तस्थ या अर्धस्वर स्वरों से बने हुए व्यंजन हैं। लगभग आधे स्वर ही होते हैं। ये व्यंजन तो हैं, लेकिन स्वर और व्यंजनों के बीच रहते हैं। इन व्यंजनों का उद्भव किसी स्वर से होता है। और जिस स्वर से इनका निर्माण होता है उन दोनों का उच्चारण स्थान समान रहता है। अन्तस्थ या अर्धस्वर चार होते हैं –
य्। र्। ल्। व्॥
य्
य् बना है इ से। हम देख सकते हैं कि इ और य् इन दोनों का उच्चारण स्थान भी एक ही है – तालु। यदि आपने यण् सन्धि का अध्ययन किया है, तो आप समझ सकते हैं कि इ से य् बनता है। तथापि यदि यण् सन्धि का अध्ययन नहीं भी किया है तो हम आपको बता रहे हैं। एक प्रयोग कीजिए। इ के बाद किसी भी स्वर का उच्चारण कीजिए। अपने आप इ का य् बन जाता है। (हां, इ के बाद इ फिरसे नहीं लेना है) जैसे –
इ + अ – य
इ + उ – यु
इ + ए – ये
अंग्रेजी का भी उदाहरण हम देख सकते हैं –
Europe इस शब्द में Eu इन दोनों का संयुक्त उच्चारण हम यु ऐसा ही तो करते हैं।
इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है की यद्यपि य् एक स्वतन्त्र व्यञ्जन है, तथापि यह एक आधा स्वर (अर्धस्वर) है। ठीक इसी तरह से बाकी के र्। ल्। व् के बारे में भी है।
र्
ऋ यह स्वर र् का मूल है। अर्थात् ऋ से ही र् की उत्पत्ति होती है। दोनों का समान उच्चारण स्थान है – मूर्धा।
ऋ का सही उच्चारण
यहाँ एक समस्या है। बहुतेरे लोग ऋ इस स्वर का सही उच्चारण नहीं करते हैं। प्रायः उत्तर भारत में ऋ का उच्चारण रि ऐसा (ऋषि – रिषि, ऋतु – रितु) करते हैं अथवा दक्षिण भारत में रु ऐसा (ऋषि – रुषि, ऋतु – रुतु) करते हैं। जो दोनों भी उच्चारण ग़लत हैं। हम आप को बता देते हैं कि ऋ एक स्वतन्त्र स्वर है। इसके उच्चारण के लिए किसी अन्य (इ अथवा उ) की आवश्यकता नहीं होती है।
यदि हम ऋ का सही उच्चारण करना जानते हैं तो हम समझ सकते हैं कि ऋ से र् की उत्पत्ति कैसे होती है।
- ऋ + अ – र
- ऋ + आ – रा
- ऋ + इ – रि
ल्
ल् यब व्यंजन बनता है ऌ इस स्वर से। अब इस स्वर के मामले में भी बहुत सी बाते समझने योग्य हैं। बहुतेरे लोग इसे स्वर समझते ही नहीं। ज़्यादातर लोग ल् + ऋ – लृ ऐसा पढ़ते हैं।
परन्तु इसके विपरीत ऌ यह एक स्वयंभू स्वर है। जिसका विच्छेद नहीं हो सकता है। इस स्वर से ही ल् यह व्यञ्जन उत्पन्न होता है। ऌ और ल् इन दोनों वर्णों का उच्चारण स्थान दन्त है। देखिए –
ऌ + अ – ल
ऌ + आ – ला (लाकृतिः)
ऌ + इ – लि
व्
व् इस व्यंजन का मूल उ यह स्वर है। दोनों का उच्चारण स्थान ओष्ठ है।
उ + अ – व
उ + आ – वा
उ + इ – वि
अवर्गीय व्यंजनों की अधिक जानकारी के लिए यह वीडिओ देखिए –
इस प्रकार से हमने व्यंजनों के वर्गीय और अवर्गीय ऐसे दो प्रकार देख लिए हैं। अब हम व्यंजनों के वर्गीकरण का दूसरा प्रकार देखते हैं।
मृदु व्यंजन और कठोर व्यंजन
सन्धिप्रकरण में वर्णों की मृदुकठोरता देखी जाती है।
हमने स्वरों वाले लेख में देखा है कि सारे स्वर मृदु होते हैं। परन्तु सारे व्यंजन मृदु नहीं होते हैं। कुछ व्यंजन मृदु होते हैं तथा कुछ व्यंजन कठोर भी होते हैं।
मृदु व्यंजन
हमने इससे पहले वर्गीय और अवर्गीय व्यंजनों का अध्ययन किया है। वर्गीय व्यंजनों में अपने अपने वर्ग का तीसरा, चौथा और पांचवा व्यंजन मृदु होता है। (कोष्टक देखिए)
१ | २ | ३ | ४ | ५ |
क् | ख् | ग् | घ् | ङ् |
च् | छ् | ज् | झ् | ञ् |
ट् | ठ् | ड् | ढ् | ण् |
त् | थ् | द् | ध् | न् |
प् | फ् | ब् | भ् | म् |
और अवर्गीय व्यंजनों में अर्धस्वर (य्। र्। ल्। व्॥) व्यंजन मृदु होते हैं। अब अर्धस्वर व्यंजन क्यों मृदु होते हैं? इसका अनुमान लगाना आसान है। हम जानते हैं कि सारे स्वर मृदु होते हैं। और चूँकि ये अर्धस्वर व्यंजन भी स्वरों से ही बने हैं अतः ये भी मृदु ही होने चाहिए।
य् | र् | ल् | व् |
अवर्गीय व्यंजनों में एक और प्रकार होता है उष्म व्यंजन इनमें चार व्यंजन होते हैं – श्। ष्। स्। ह। इन चारों में से एक व्यंजन मृदु है – ह।
श् | ष् | स् | ह |
कठोर व्यंजन
स्पष्ट है। जो व्यंजन मृदु नहीं हैं वे सब व्यंजन कठोर हैं। अर्थात् वर्गीय व्यंजनों में प्रत्येक वर्ग का पहला और दूसरा व्यंजन कठोर है। अवर्गीय व्यंजनों में अर्धस्वर (य्। र्। ल्। व्) तो सारे के सारे मृदु है। अतः उनमें से कोई कठोर नहीं है। उष्मों में से – श्। ष्। स्। ये तीन कठोर हैं। आर बाकी बचा ह तो मृदु है।
इस प्रकार से हम कुल मिलाकर मृदु और कठोर वर्ण (केवल व्यंजन नहीं अपितु पूरी वर्णमाला में) देखते हैं तो ऐसी आकृति मिलती है –

अल्पप्राण और महाप्राण व्यंजन
व्याख्या
प्राण का अर्थ है वायु। जिन वर्णों का उच्चारण करने के लिए अधिक वायु का प्रयोग होता है वे महाप्राण वर्ण हैं। तथा जिनके लिए कम वायु की आवश्यकता होती है वे अल्पप्राण वर्ण हैं।
महाप्राण व्यंजनों का H से सम्बन्ध
H इस अंग्रेज़ी वर्ण को ध्यान में रखिए। जिस वर्गीय व्यंजन के हिज्जे (स्पेलिंग) लिखने के लिए H का प्रयोग किया जाता है वह महाप्राण है और बाकी सब अल्पप्राण हैं। ध्यान रखिए यह केवल वर्गीय व्यंजनों के लिए है।
निम्न कोष्टक में महाप्राण और अलप्राण व्यंजनों को दिखाया है –
वर्गीय व्यंजन
१ | २ | ३ | ४ | ५ |
---|---|---|---|---|
क् | ख् | ग् | घ् | ङ् |
k | kh | g | gh | n |
च् | छ् | ज् | झ् | ञ् |
*c | *ch | j | jh | n |
ट् | ठ् | ड् | ढ् | ण् |
t | th | d | dh | n |
त् | थ् | द् | ध् | न् |
t | th | d | dh | n |
प् | फ् | ब् | भ् | म् |
p | ph | b | bh | m |
* विशेष टिप्पणी - बहुतेरे लोग यहाँ आक्षेप ले सकते हैं की च् इस व्यंजन को अंग्रेज़ी में लिखने के लिए CH ऐसे हिज्जे बनाते हैं। तो यह भी महाप्राण क्यों नहीं है? यह पद्धति हंटेरियन लिप्यन्तरण में प्रयुक्त होती है जो बहुत सदोष है। परन्तु उपर्युक्त कोष्टक में च् के लिए केवल C लिखा है। हमने इस लिप्यन्तरण के लिए ISO 15919 का आधार लिया है। इस में च् के लिए C और छ् के लिए CH का प्रयोग होता है।
अवर्गीय व्यंजन
अर्धस्वर | य् | र् | ल् | व् |
उष्म | श् | ष् | स् | ह् |
अवर्गीय व्यंजनों में सारे अर्धस्वर तो अल्पप्राण है। परन्तु सभी उष्म महाप्राण हैं।
सभी स्वर अल्पप्राण होते हैं
वस्तुतः इस बात को स्वरों वाले लेख में कहना ज्यादा उचित होता। तथापि वहाँ इस बात का उल्लेख न करते हुए हम इस व्यंजनों वाले लेख में इस बात को बता रहे हैं कि सभी स्वर अल्पप्राण होते हैं।
तो इस तरह से हमने देखा की कौन से व्यंंजन महाप्राण अथवा अल्पप्राण होते हैं। ऊपर लिखी बातों को पढ़ कर हम यह निचोड़ इस प्रकार हो सकता है –
अल्पप्राण | महाप्राण |
---|---|
सभी स्वर | – |
वर्गीय व्यंजनों में पहला, तीसरा और पांचवा व्यंजन | वर्गीय व्यंजनों में दूसरा और चौथा व्यंजन |
अवर्गीय व्यंजनों में सभी अर्धस्वर | अवर्गीय व्यंजनों में सभी उष्म |
व्यंजनों के उच्चारण स्थान के अनुसार प्रकार
हमने पूर्ववर्ती लेख में स्वरों के उच्चारणस्थानों के बारे में पढ़ा है। इस लेख में भी वर्गीय व्यंजनों के विषय में उच्चारण स्थान देखे हैं। वस्तुतः वर्गीय व्यंजनों के वर्ग भी उच्चारण स्थान भी उच्चारण स्थान से ही बनाए हैं। वहां हम उच्चारण स्थानों की चर्चा कर चुके हैं। तथापि उन में अवर्गीय व्यंजन समाविष्ट नहीं थे।
वर्गीय व्यंजन | अवर्गीय व्यंजन | उच्चारण स्थान | प्रकार |
---|---|---|---|
क्। ख्। ग्। घ् | ह् | कण्ठ | कण्ठ्य |
च्। छ्। ज्। झ्। ञ् | य्। श् | तालु | तालव्य |
ट्। ठ्। ड्। ढ्। ण् | र्। ष् | मूर्धा | मूर्धन्य |
त्। थ्। द्। ध्। न् | ल्। स् | दन्त | दन्त्य |
प्। फ्। ब्। भ्। म् | – | ओष्ठ | ओष्ठ्य |
– | व् | दन्तौष्ठ | दन्तौष्ठ्य |
वर्गीय व्यंजनों में अनुनासिक
१ | २ | ३ | ४ | ५ |
क् | ख् | ग् | घ् | ङ् |
च् | छ् | ज् | झ् | ञ् |
ट् | ठ् | ड् | ढ् | ण् |
त् | थ् | द् | ध् | न् |
प् | फ् | ब् | भ् | म् |
देखिए, हमारी वर्णमाला की रचना बहुत व्यवस्थित ढंग से की गई है। हमने ऊपर देखा ही है कि वर्गीय व्यंजनों की रचना उनके उच्चारण स्थानों के अनुसार की है। इसमें एक और भी विशेष यह है कि हर एक उच्चारण स्थान से एक अनुनासिक भी निकलता है और उस अनुनासिक को सबसे पीछे लिखा गया है। यानी वर्गीय व्यंजनों में अन्तिम व्यंजन अनुनासिक होता है। कवर्ग से शुरुआत करें तो क्रमशः पांचों वर्गों के पांच अनुनासिक हैं – ङ्। ञ्। ण्। न्। म्॥
सन्धिप्रकरण में अनुनासिकों का अपना एक महत्त्व है। बहुत बार सन्धि में इन का विचार किया जाता है। अतः विद्यार्थी को किस वर्ग का अनुनासिक कौन है? इस बारे में पता होना चाहिए।
अनुनासिक किसे कहते हैं?
अनुनासिक की स्पष्ट व्याख्या अष्टाध्यायी में है – मुखनासिकावचनोऽनुनासिकः। इस व्याख्या के अनुसार किसी भी वर्ण को अनुनासिक होने के लिए दो शर्तों को पूरा करना ज़रूरी होता है –
- उच्चारण मुख से होना चाहिए।
- उच्चारण नासिका (नाक की मदद से) होना चाहिए।
अर्थात्
अनुनासिक की व्याख्या (परिभाषा)
जिन वर्ण का उच्चारण मुख और नासिका इन दोनों से होता है उसे अनुनासिक वर्ण कहते है।
ध्यान दीजिए –
अनुस्वार अनुनासिक नहीं है।
अनुस्वार (अं) जो कि एक स्वराश्रित है और स्वरों के विभाग में होता है, वह अनुनासिक नहीं है।
यद्यपि अनुस्वार का उच्चारण करने के लिए नासिका का प्रयोग होता है, तथापि अनुस्वार का उच्चारण मुख से नहीं होता है। और अनुनासिक होने के लिए दोनों (मुख + नाक) से उच्चारित होना आवश्यक है। इसीलिए अनुस्वार अनुनासिक नहीं है।
एक और बात …
अनुनासिक और अनुस्वार में एक और अन्तर है।
- अनुनासिक केवल वर्णों का प्रकार है।
- परन्तु अनुस्वार स्वयम् एक वर्ण है।
अर्थात् अनुनासिक नाम का कोई स्वतन्त्र वर्ण नहीं है। जैसे ङ्। ञ्। ण्। न्। म् ये पांचो अनुनासिक हैं वैसे ही सभी स्वरों का एक दूसरा अनुनासिक रूप भी होता है। यानी स्वर भी अनुनासिक हो सकते हैं। जैसे – अँ। आँ। इँ। ईँ। उँ। ऊँ …..
अर्धस्वर य्। र्। ल्। व्। का भी अनुनासिक रूप होता है – य्ँ। र्ँ। ल्ँ। व्ँ॥
लेकिन वर्गीय पञ्चम वर्ण (ङ्। ञ्। ण्। न्। म्) तो केवल अनुनासिक ही होते हैं। इनका दूसरा रूप नहीं होता है।
उपसंहार
इस प्रकार से हमने संस्कृत वर्णमाला की दृष्टि से व्यंजनों का अध्ययन किया है। आशा है कि आप सभी को समझने में आसानी हुई होगी। हम इसी प्रकार से क्रमशः संस्कृत व्याकरण से संबन्धित लेख स्कूली छात्रों के लिए लिखते रहेगे। इति लेखनसीमा॥
धन्यवाद
खुप चांगली पोस्ट आहे तुमची मला वाचून खुप आनंद झाला कारण तुम्ही पोस्ट बनवताना खुप कष्ट घेतले असतील ते या पोस्ट मध्ये दिसून येत आहे
Nirmal Academy
धन्यवाद
आपली प्रतिक्रिया वाचून खूप आनंद झाला।