संहिता की व्याख्या
संस्कृत व्याकरण में संहिता एक महत्त्वपूर्ण संज्ञा है।
अष्टाध्यायी में संज्ञा को इस सूत्र के द्वारा समझाया है –
परः सन्निकर्षः संहिता। १।४।१०९॥
अर्थात् जब दो वर्ण एकदूसरे के बिल्कुल नजदीक आ जाते हैं, तो उसे संहिता कहते हैं।
उदाहरणार्थ – रामः यह एक पद है। इस पद में कुल पाँच वर्ण हैं –
- र् + आ + म् + अ + : (विसर्ग)
इन का उच्चारण करने से हम पता चलता है कि इन में से प्रत्यक वर्ण क्रमिक वर्ण के साथ संहिता में है। जैसे कि जब हम रामः कहते हैं तो ये सभी वर्ण एक दुसरे से बिल्कुल चिपकाकर बोले जाते हैं। यही संहिता है।
यानी रामः इस पद में कुल चार संहिताएं हैं –
- र् + आ
- आ + म्
- म् + अ
- अ + :
संहिता कहाँ करनी चाहिए
संहिता कहाँ पर करना आवश्यक है, कहाँ विकल्प से होती है इस विषय में इस श्लोक का बड़ा महत्त्व है –
संहितैकपदे नित्या, नित्या धातूपसर्गयोः ।
नित्या समासे, वाक्ये तु सा विवक्षामपेक्षते ॥
इस श्लोक में चार भाग हैं।
संहिता एकपदे नित्या
किसी एक पद में संहिता नित्य होती है। नित्य यानी हमेशा होती ही है। उसे टाल नहीं सकते। जैसे कि पहले हम ने उदाहरण देखा – रामः। यहाँ रामः यह एक पद है और एक पद में संहिता होती ही है।
यदि एक पद में संहिता नहीं होती है तो पद अर्थहीन हो जाता है। जैसे कि –
- र् …… आमः।
यहाँ हम ने र् से थोडी देर बाद आमः का उच्चारण किया। तो यह पद अर्थहीन हो गया।
नित्या धातु-उपसर्गयोः
धातु से पूर्व में यदि कोई उपसर्ग (prefix) आता है तो वहाँ संहिता नित्य होती है। वहाँ संहिता को टाल नहीं सकते। जैसे कि –
- आ + गच्छति = आगच्छति।
यहाँ यदि हम ने आ इस उपसर्ग के तुरंत बाद गच्छति का उच्चारण नहीं किया, तो अनर्थ हो सकता है –
- आ ………. गच्छति।
नित्या समासे
समास में भी संहिता करना नित्य होता है। जैसे कि – देव्याः स्तुतिः देवीस्तुतिः। यह षष्ठी तत्पुरुष समास है। यदि हम ने इस को संहिता कर के चिपकाया नहीं तो दोनों अलग अलग पद बन जाते हैं – देवी ….. स्तुतिः। ऐसा करने पर यह प्रश्न पड़ता है कि हम देवी के बारे में बात कर रहे हैं या स्तुति के बारे में। परन्तु देवीस्तुतिः ऐसा कहने से समझ जाता है की देवी की स्तुति के बारे में बात हो रही है।
इसीलिए समास में संहिता का होना आवश्यक है।
वाक्ये तु सा विवक्षाम् अपेक्षते
वाक्य में तो आप की मर्जी है।
यदि वक्ता चाहे तो वाक्य में संहिता करे अथवा न करे। यहाँ वक्य से तात्पर्य है वाक्य में मौजूद भिन्न-भिन्न पदों में। ना कि किसी एक पद में मौजूद वर्ण में।
अर्थात् किसी वाक्य में बहुत सारे पद होते हैं। और वक्ता तो हमेशा एक लय में ही बोलता है। ऐसे क्रम में वह चाहे तो सभी पदों को एक साथ चिपकाकर बोल सकता है अथवा जब चाहे तब रुक -रुक कर भी बोल सकता है।
जैसे कि –
- रामः वनं गच्छति।
अथवा
- रामः …… वनम् ……. गच्छति।
संहिता इस संज्ञा का अन्य संज्ञाओं से भेद
कुछ संज्ञाएं ऐसी हैं जिनका स्वरूप संहिता जैसा लग सकता है। परन्तु वे वस्तुतः संहिता से भिन्न होती है। उन के उदाहरण हम यहाँ दे रहे हैं।
संहिता और संयोग में भेद
महर्षि पाणिनि ने संयोग को इस सूत्र से समझाया है – हलोऽननन्तराः संयोगः। १। १। ७॥
संहिता और संयोग में एक बहुत ही छोटा अन्तर है। दोनों में भी दो वर्ण बिल्कुल नजदीक आते हैं जिनके बीच में कोई दूसरा वर्ण नहीं होता है। परन्तु संहिता सभी वर्णों में होती है। अर्थात् स्वर तथा व्यंजनों में संहिता हो सकती है।
परन्तु संयोग केवल दो व्यंजनों का होता है जिसे हिन्दी में संयुक्ताक्षर कहते हैं।
अर्थात् संयोग में संहिता हो सकती है। परन्तु प्रत्येक संहिता में संयोग होता ही है ऐसा नहीं है। जैसे कि –
- दुर्गा – द् + उ + र् + ग् + आ।
इस पद में आप देख सकते हैं कि र् + ग् इन दोनों व्यंजनों के बीच में कोई दूसरा वर्ण नहीं है। अतः यह संयोग है और चूँकि दुर्गा एक पद है इसीलिए पद में तो हर वर्ण संहिता में ही रहते हैं। अतः यहाँ संहिता भी है।
संहिता और संधि में भेद
दो वर्णों का बिल्कुल नजदीक उच्चारण, बीच में किसी अन्य वर्ण का ना होना – बस इतना ही संहिता का अर्थ है। इस में किसी भी वर्ण में कुछ परिवर्तन, बदलाव का जिक्र नहीं है।
परन्तु सन्धि में तो बदलाव होते हैं। यानी पूर्व में जो वर्ण होते हैं उन में बदलाव होते हैं।
हालांकि संहिता के बिना संधि नहीं होता है। संधि होने के लिए सर्वप्रथम संहिता होना आवश्यक है। बिना संहिता के सन्धि भी नहीं होता है।
अर्थात् पहले दो वर्णों की संहिता होगी और बाद में यदि सन्धिप्रकरण का कोई सूत्र लागू होता है तो वहाँ सन्धिकार्य होता है। अन्यथा नहीं।