सन्धिप्रकरण संस्कृत व्याकरण में सबसे आसान प्रकरण माना जाता है। तथापि बहुत बुनियादी बातों को जानना ज़रूरी होता है।
बहुतेरे लोगों को सन्धि और सन्धिकार्य में अन्तर भी पता नहीं होता है। एक सन्धि में एक से ज़्यादा भी सन्धिकार्य हो सकते हैं। चलिए, सन्धि और सन्धिकार्य को समझते हैं।
व्यवहार में सन्धि का अर्थ –
सन्धि इस शब्द का प्रयोग केवल व्याकरण में ही होता है ऐसा नहीं है। सन्धि इस शब्द का प्रयोग व्यवहार में भी किया जाता है। जब दो शत्रु राजा अपनी शत्रुता को मिटाकर आपस में मिलते हैं, तो उसे भी सन्धि कहते हैं। हड्डियों के जोड को भी सन्धि कहते हैं। अर्थात् सन्धि इस शब्द का अर्थ होता है – जोड़।
लेकिन जब बात आती है व्याकरण की, तो यहाँ सन्धि इस शब्द की एक विशिष्ट परिभाषा है। और इस परिभाषा की सीमा में ही सन्धि इस शब्द का अर्थ समझा जाता है।
सन्धि की व्याख्या (परिभाषा)
सन्धि की स्पष्ट परिभाषा महर्षि पाणिनि ने अष्टाध्यायी में लिखी है –
परः संनिकर्षः संहिता १। ४। १०९॥
इस सूत्र में तीन शब्द हैं। तीनों शब्दों के अर्थ देखिए –
- परः – बहुत ज्यादा
- संनिकर्षः – नज़दीक आना
- संहिता – सन्धि
इन तीनों शब्दों का कुल मिला कर अर्थ बनता है – बहुत नज़दीक आने को सन्धि कहते हैं।
इस सूत्र में बस इतना बताया है कि – बहुत नज़दीक आने को सन्धि कहते हैं। लेकिन प्रश्न है कि नज़दीक कौन आता है? ध्यान रखिए कि हम व्याकरण पढ़ रहे हैं। व्यवहार में तो दो शत्रु राजा सन्धि कर के मित्र बन जाते हैं। शरीर में हड्डियां सन्धि कर लेती हैं। लेकिन व्याकरण की दृष्टि से सन्धि कहाँ होता है? क्या दो शब्दों में सन्धि होता है? अथवा दो वर्णों में सन्धि होता है?
इस प्रश्न का उत्तर सिद्धान्तकौमुदी इस ग्रन्थ में स्पष्ट रूप से लिखा है –
वर्णानाम् अतिशयितः सन्निधिः संहितासंज्ञः स्यात्।
देखिए यहाँ ग्रन्थलेखक श्री॰ भट्टोजी दीक्षितजी ने स्पष्टरूप से वर्णानाम् ऐसा लिखा है। अर्थात् यहाँ बात चल रही है वर्णों की। वर्ण बहुत नज़दीक आते हैं। यानी व्याकरणशास्त्र की दृष्टि से सन्धि की परिभाषा बनती है –
जब दो वर्ण एक दूसरे के बहुत नज़दीक आती हैं, तो उसे सन्धि कहते हैं।
इस परिभाषा पर आक्षेप
जो सन्धि की परिभाषा ऊपर लिखी है उस पर कुछ जिज्ञासु प्रश्न उत्पन्न हो सकते हैं। जैसे कि यदि केवल वर्णों के बहुत नज़दीक आने को ही सन्धि कहा जाए तो प्रत्येक पद में सन्धि होनी चाहिए। जैसे कि – रामः यह एक पद है। यह पद वर्णों से बना है – र् + आ + म् + अः । तो क्या इन सभी वर्णों में सन्धि है? इस तरह से तो प्रत्येक पद में सन्धि है।
हां, प्रत्येक पद में सन्धि है।
सन्धि हर जगह पर है। क्योंकि जो भी शब्द बनते हैं वे वर्णों से बनते हैं। और वर्णों के मिलने से (यानी सन्धि करने से ही) शब्द बनते हैं।
हालांकि यह बात अलग है कि कुछ कुछ स्थानों पर सन्धि विकल्प से होता है। कुछ स्थानों पर निषेध होता है।
अब प्रश्न उठता है कि यदि गण + ईश – गणेश (गुण), विद्या + आलय – विद्यालय (दीर्घ), इति + आदि – इत्यादि (यण्) ये जो सन्धि के नाम से पढ़ाए जाते हैं वे क्या हैं?
वे सन्धि नहीं है?
नहीं। ये दीर्घ, गुण, यण् आदि सन्धि नहीं है। सन्धि तो हर शब्द में प्रायः होता ही है। ये दीर्घगुणादि तो सन्धि निमित्तक कार्य (सन्धिकार्य) है।
सन्धि और सन्धिकार्य
सन्धिनिमित्तक कार्य (सन्धिकार्य) क्या है?
देखिए, जब भी दो वर्णों में नज़दीकी होती है, तो कुछ कुछ वर्णों के मामले में कुछ नियम बनाएं हैं। जैसे कि – यदि अ और इ क्रमशः सन्धि में होते हैं, तो दोनों की जगह पर ए आदेश होगा। जैसे कि –
- नर + इन्द्र
- र् + अ + इ
- र् + ए
- रे
- नरेन्द्र
इस उदाहरण में अ और इ के विषय में गुण सन्धि का नियम था। इसीलिए गुणकार्य हुआ। यानी दोनों में परिवर्तन हुआ। लेकिन यह सन्धि नहीं है। अगर अ और इ सन्धि में हैं उसी समय यह परिवर्तन होगा। अन्यथा नहीं। एक और उदाहरण देखिए –
वैसे देखा जाए तो रामभक्त (राम + भक्त) इन दोनों शब्दों में भी सन्धि है। लेकिन यहाँ अ और भ् इन दोनों वर्णों के लिए कोई सन्धिनिमित्त कार्य नहीं बताया है। इसीलिए यहाँ दीर्घ, गुण, यण् इत्यादि सन्धिनिमित्त कार्य से परिवर्तन नहीं दिखता है।
सन्धि और सन्धिकार्य में अन्तर
पुनः यदि दूसरे शब्दों में बताऊं, तो दीर्घ, गुण, यण् इत्यादि सन्धि करने से पहले देखना पड़ता है कि जहाँ हम कार्य करने जा रहे हैं वहां सन्धि है या नहीं! जैसे कि –
- नर……………इन्द्र
यहाँ अ और इ में सन्निधिः (नज़दीकी) नहीं है। इसीलिए यहाँ अ + इ – ए यह नियम लागू नहीं होता है। लेकिन –
- नरइन्द्र
यहाँ अ + इ ऐसी स्थिति है। इसीलिए यहाँ सन्धि है। और सन्धि है, इसीलिए गुणकार्य (नरेन्द्र) होगा। अन्यथा नहीं।
एक सन्धि में एक से अधिक सन्धि कार्य भी होते हैं।
एक बात ध्यान से सुनिए कि सन्धि एक ही बार होता है। सन्धि बारबार नहीं होता है। लेकिन एक सन्धि के दरम्यान एक से ज्यादा भी सन्धिकार्य हो सकते हैं।
जैसे कि –
हम ने तो कुछ सन्धियों में चार-पांच तक सन्धिकार्य देखे हैं। जैसे कि तुगागम। यहाँ एक ही सन्धि में चार सन्धिकार्य होते हैं –
जैसे कि – परि + छेद = परिच्छेद
- परि + छेद
- परि + तुक् + छेद ….. छे च। इति तुगागमः।
- परि + त् + छेद ….. (अनुबन्धलोपः)
- परि + द् + छेद ….. झलां जशोऽन्ते। इति जश्त्वम्।
- परि + ज् + छेद ….. स्तोः श्चुना श्चुः। इति श्चुत्वम्।
- परि + च् + छेद ….. खरि च। इति चर्त्वम्।
- परिच्छेद …. अन्त में वर्णसम्मेलन से यह उत्तर मिल जाता है।
जैसे कि हमने इस उदाहरण में देख लिया है कि परि + छेद इस एक सन्धि में तुगागम, जश्त्व, श्चुत्व और चर्त्व ऐसे चार सन्धिकार्य हुए हैं।
अर्थात् हम कह सकते हैं कि –
सन्धि और सन्धिकार्य में अन्तर होता है।
सन्धि इस शब्द का लिंग क्या है?
बहुतेरे लोग (शिक्षक भी) सन्धि इस शब्द को (प्रादेशिक भाषाओं के संस्कार से) स्त्रीलिंग शब्द मानते हैं। जैसे कि –
- हमने सन्धि सीखी है।
यह वाक्य ऐसा होना चाहिए –
- हमने सन्धि सीखा है।
इस के बावजूद भी सन्धि को स्त्रीलिंग ही मानना है तो सन्धि इस शब्द का पर्याय शब्द लीजिए जो स्त्रीलिंग शब्द है – संहिता। संहिता और सन्धि ये दोनों शब्द समान है। अन्तर इतना है कि संहिता स्त्रीलिंग शब्द है और सन्धि पुँल्लिंग शब्द है। इस बात को हमेशा ध्यान में रखना।
सन्धि के बारे में कारिका
संहितैकपदे नित्या नित्या धातूपसर्गयोः।
नित्या समासे वाक्ये तु सा विवक्षामपेक्षते॥
इस कारिका में स्पष्ट रूप से चार नियम बाताए हैं।
संहितैकपदे नित्या
संहिता एक पद में नित्य होती है। यानी कोई एक पद हो, तो उसमें सन्धि होता ही है। पद के बारे में जानने के लिए यहाँ क्लिक कीजिए।
और अगर कही दीर्घ, गुण, यण् आदि सन्धिकार्यों के लिए अवसर मिलता है तो कर लेने चाहिए – भो + अति = भवति।
नित्या धातूपसर्गयोः
धातु और उपसर्ग के बीच भी सन्धि हमेशा होता है। जैसे कि – आ + गच्छति = आगच्छति। यहां सन्धि हमेशा करना ही होता है। इसीलिए आ और गच्छति इन दोनों में हमें विराम नहीं लेना चाहिए। दोनों को एक ही शब्द की तरह एक ही बार में बोलना चाहिए।
और अगर कही दीर्घ, गुण, यण् आदि सन्धिकार्यों के लिए अवसर मिलता है तो कर लेने चाहिए – उप + एति = उपैति।
नित्या समासे
जहां समास होता है वहां पूर्वपद और उत्तरपद में सन्धि जरूर होता है। जैसे कि रामस्य भक्तः इन दोनों सामर्थ्यवान् पदों का समास रामभक्त ऐसा होता है। यहां समास होने के कारण हमें सन्धि कर लेना चाहिए।
- राम …………. कुछ समय का अंतर ……… भक्त
ऐसा बिल्कुल भी नहीं होना चाहिए।
और यदि समास में किसी जगह पर दीर्घ, गुण, यण् आदि सन्धिकार्यों के लिए अवसर मिलता है तो कर लेने चाहिए – राम + ईश्वर = रामेश्वर।
वाक्ये तु सा विवक्षाम् अपेक्षते
जब कोई बोलनेवाला वाक्य बोलता है, तो वहाँ विवक्षा होती है। विवक्षा यानी बोलने वाले की इच्छा। अर्थात् यदि बोलनेवाला चाहे तो सन्धि कर सकता है और ना चाहे तो सन्धि नहीं किया तो भी चलता है।
जैसे कि –
- रामः चलति। यहां सन्धि नहीं किया है। क्योंकि यह एक वाक्य है। और वाक्य में बोलनेवाले को पूरी स्वतन्त्रता होती है।
- रामश्चलति। इस वाक्य में सन्धि किया है। क्योंकि यह एक वाक्य है। और वाक्य में बोलनेवाले को पूरी स्वतन्त्रता होती है।
उपसंहार
इस प्रकार से हम ने सन्धि के बारे में बुनियादी बाते जानने का प्रयत्न किया है। यदि आप सन्धि के विषय में कुछ अपने विचार रखना चाहते हैं, तो जरूर नीचे टिप्पणी करें। हम उसे भी इस लेख में शामिल कर सकते हैं।
आगे आनेवाले (आगामी) लेख में हम सन्धि के प्रकार कितने होते हैं? इस बात की चर्चा करेंगे। वस्तुतः अधिकतर लोगों के पता होता ै कि सन्धि के तीन प्रकार होते हैं – स्वरसन्धि, व्यंजनसन्धि और विसर्गसन्धि। लेकिन सन्धि के केवल तीन प्रकार नहीं होते हैं। सन्धि के कुल पांच प्रकार होते हैं। उन को हम आगामी लेखों में क्रमशः देख लेगे। इति लेखनसीमा॥
मैं संस्कृत भाषा को समझने का प्रयास कर रहा हूँ। बिल्कुल ही जीरो हूँ इसलिए समझना थोड़ा मुश्किल हो रहा है।
अगर हो सके तो एक vedio बना कर संधि और संधिकार्य का अंतर समझा दीजिये
धन्यवाद
रंगीत पांडेय जी।
प्रणाम
हमारा यूट्यूब चैनल भी है। वहाँ आप को बहुत सारी उपयुक्त सामग्री मिल सकती है।
संधि और संधिकार्य पर भी हम वीडिओ जल्द ही बना देगे।
हमारे यूट्यूब चैनल की लिंक यहाँ है –
https://www.youtube.com/channel/UCv_Dc0bhw2N-UfhfNigxzRw
धन्यवाद।