गुण सन्धि

संस्कृत भाषा के साथ साथ हिन्दी, मराठी आदि भारतीय भाषाओं में गुणसन्धि (Guna Sandhi) पढाया जाता है।

गुण सन्धि के सूत्र

वस्तुतः पाणिनीय अष्टाध्यायी में गुणसन्धि के लिए इस सूत्र को पढा गया है –आद्गुणः।६।१।८७॥

परन्तु शालेय छात्रों के लिए यह सूत्र समझना कठिन है। यदि आप इस सूत्र को ही समझना चाहते हैं, तो उपर्युक्त सूत्र पर क्लिक करें।

शालेय छात्रों की सुविधा के लिए हम ने गुण संधि के लिए इन चार सूत्रों को बनाया है। यदि कोई भी छात्र इन चारों सूत्रों को कण्ठस्थ करें तो अवश्य ही लाभ होगा।

  1. अ/आ + इ/ई – ए
  2. अ/आ + उ/ऊ – ओ
  3. अ/आ + ऋ/ॠ – अर्
  4. अ/आ + ऌ – अल्

गुण संधि का वीडिओ

यदि आप वीडिओ के माध्यम से गुण संधि का अभ्यास करना चाहिते हैं तो इस वीडिओ को देखिए। अन्यथा गुण संधि को विस्तार से पढने के लिए इस लेख को पढना जारी रखिए।

https://youtu.be/zW9XNLojeg4

इस सन्धि का नाम गुणसन्धि ऐसा क्यों पड़ा?

पाणिनीय अष्टाध्यायी का के दूसरे ही सूत्र में महर्षि पाणिनी ने कहा है कि – , और इन तीनों स्वरों को गुण कहा जाए। (अदेङ्गुणः।१।१।२॥)

यदि आप इस सन्धि के उपर्युक्त चारों सूत्रों को देखते हैं तो समझ सकते हैं कि इस सन्धि में जो आदेश हो रहे हैं वे हैं – ए, ओ, अर् और अल्। और इन में आप देख सकते हैं कि जिन स्वरों को गुण स्वर कहा गया है वे स्वर ही यहाँ आदेश हैं।

इसीलिए इस सन्धि को गुण सन्धि कहते हैं।

गुण सन्धि के सूत्रों का स्पष्टीकरण, उदाहरण तथा अभ्यास

हम ने गुण सन्धि के चार सूत्रों को लिखा है, अतः हम क्रमशः इन सूत्रों का अभ्यास करेंगे।

१. अ/आ + इ/ई – ए

स्पष्टीकरण

यदि सन्धिकार्य करते समय –

  • पूर्ववर्ण अ अथवा आ हो
  • और उत्तरवर्ण इ अथवा ई हो

तो दोनों के स्थान पर यह आदेश हो जाता है।

उदाहरण

नर + ईश – नरेश

यहाँ नर का अर्थ है मनुष्य और ईश का अर्थ हुआ स्वामी। मनुष्यों का स्वामी (नरेश) होता है – राजा। अब हम यहाँ सन्धिकार्य कैसे हुआ इस बात को जानते हैं।

नर + ईश। यहाँ र + ई ऐसा सन्धि हो रहा है।

  • + ई। र का वर्णविच्छेद र् + अ ऐसा होता है।
  • र् + + ।यहाँ हम देख सकते हैं कि अ + ई ऐसी स्थिति बन रही है।
  • र् + + ।और ऐसी स्थिति में दोनों अपने स्थान से हट जाते हैं।
  • र् + । और उन के स्थान पर ए यह आदेश हो जाता है।
  • रे। दोनों को जोड़ कर रे बनता है।

अब इस रे को नर + ईश में रख कर हमारा कार्य समाप्त हो जाता है।

रे

अन्य उदाहरणों के द्वारा अभ्यास

  • देव + इन्द्र – देवेन्द्र
  • महा + इन्द्र – महेन्द्र
  • नर + इन्द्र – नरेन्द्र
  • परम + इन्द्र – परमेन्द्र
  • देव + ईश – देवेश
  • महा + ईश – महेश
  • नर + ईश – नरेश
  • दिन + ईश – दिनेश
  • प्रथम + ईश – प्रथमेश
  • परम + ईश – परमेश
  • विघ्न + ईश – विघ्नेश
  • महा + ईश्वर – महेश्वर
  • राम + ईश्वर – रामेश्वर
  • विघ्न + ईश्वर – विघ्नेश्वर
  • परम + ईश्वर – परमेश्वर

२. अ/आ + उ/ऊ – ओ

स्पष्टीकरण

यदि सन्धिकार्य करते समय –

  • पूर्ववर्ण अ अथवा आ हो
  • और उत्तरवर्ण अथवा ऊ हो

तो दोनों के स्थान पर यह आदेश हो जाता है।

उदाहरण

नर + उत्तम – नरोत्तम

यहाँ नर का अर्थ है मनुष्य और उत्तम का अर्थ हुआ अच्छा। मनुष्यों में उत्तम। अब हम यहाँ सन्धिकार्य कैसे हुआ इस बात को जानते हैं।

नर + उत्तम। यहाँ र + उ ऐसा सन्धि हो रहा है।

  • + उ। र का वर्णविच्छेद र् + अ ऐसा होता है।
  • र् + + ।यहाँ हम देख सकते हैं कि अ + उ ऐसी स्थिति बन रही है।
  • र् + + ।और ऐसी स्थिति में दोनों अपने स्थान से हट जाते हैं।
  • र् + । और उन के स्थान पर ए यह आदेश हो जाता है।
  • रो। दोनों को जोड़ कर रो बनता है।

अब इस रे को नर + उत्तम में रख कर हमारा कार्य समाप्त हो जाता है।

रोत्तम

अन्य उदाहरणों के द्वारा अभ्यास

  • गणेश + उत्सव – गणेशोत्सव
  • महा + उत्सव – महोत्सव
  • परम + उत्सव – परमोत्सव
  • वेद + उक्त – वेदोक्त
  • पुराण + उक्त – पुराणोक्त
  • आचार्य + उक्त – आचार्योक्त
  • पूर्व + उक्त – पूर्वोक्त
  • शास्त्र + उक्त – शास्त्रोक्त
  • तन्त्र + उक्त – तन्त्रोक्त
  • ग्रन्थ + ग्रन्थोक्त
  • सूर्य + उदय – सूर्योदय
  • मित्र + उदय – मित्रोदय
  • चन्द्र + उदय – चन्द्रोदय
  • भक्त + उद्धार – भक्तोद्धार
  • दीन + उद्धार – दीनोद्धार
  • दलित + उद्धार – दलितोद्धार
  • विश्व + उत्पत्ति – विश्वोत्पत्ति
  • जीव + उत्पत्ति – जीवोत्पत्ति
  • मनुष्य + उत्पत्ति – मनुष्योत्पत्ति
  • फल + उत्पत्ति – फलोप्तत्ति
  • पुष्प + उत्पत्ति – पुष्पोत्पत्ति
  • फल + उत्पादन – फलोप्तादन
  • पुष्प + उत्पादन – पुष्पोत्पादन
  • अन्न + उत्पादन – अन्नोत्पादन
  • धान्य + उत्पादन – धान्योत्पादन
  • प्रजा + उत्पादन – प्रजोत्पादन
  • वस्त्र + उद्योग – वस्त्रोद्योग
  • ग्राम + उद्योग – ग्रामोद्योग
  • शस्त्र + उद्योग – शस्त्रोद्योग
  • सागर + ऊर्मि – सागरोर्मि
  • समुद्र + ऊर्मि – समुद्रोर्मि
  • जल + ऊर्मि – जलोर्मि
  • पवन + ऊर्जा – पवनोर्जा
  • जल + ऊर्जा – जलोर्जा
  • प्रकाश + ऊर्जा – प्रकाशोर्जा
  • मानस + ऊर्जा – मानसोर्जा

३. अ/आ + ऋ/ॠ – अर्

इस सूत्र को समझने से पहले ऋ तथा ॠ इन दोनों स्वरों को समझने की आवश्यकता है।

ऋ की मात्रा

ऋ यह स्वर यदि किसी स्वर के साथ संहिता करें तो उस की मात्रा ृ ऐसी होती है। जैसे की –

  • नृप – न् + ऋ + प् + अ
  • तृण – त् + ऋ + ण् + अ
  • कृपा – क् + ऋ + प् + आ

ॠ की मात्रा

ॠ यह स्वर ऋ का दीर्घ है। यह जब किसी व्यंजन के साथ संहिता करें, तो उस की मात्रा ॄ ऐसी होती है। जैसे की –

  • पितॄन् – प् + इ + त् + ॠ + न्
  • होतॄकार – ह् + ओ + त + ॠ + क् + आ + र् + अ
  • नेतॄणाम् – न् + ए + त् + ॠ + ण् + आ + म्

ऋ तथा ॠ इन दोनों स्वरों को लिखने की अलग अलग परम्पराएं

इन स्वरों को लिखने की दो विधाएं हैं। इन बारे में हमें सावधान रहना चाहिए।

सूत्र का स्पष्टीकरण

यदि सन्धिकार्य करते समय –

  • पूर्ववर्ण अ अथवा आ हो
  • और उत्तरवर्ण अथवा ॠ हो

तो दोनों के स्थान पर अर् यह आदेश हो जाता है।

उदाहरण

महा + ऋषि – महर्षि

यहाँ महा का अर्थ है महान्। तो महान् ऋषि यानी महर्षि। अब हम यहाँ सन्धिकार्य कैसे हुआ इस बात को जानते हैं।

महा + ऋषि। यहाँ हा + ऋ ऐसा सन्धि हो रहा है।

  • + ऋ। हा का वर्णविच्छेद ह् + आ ऐसा होता है।
  • ह् + + ।यहाँ हम देख सकते हैं कि आ + ऋ ऐसी स्थिति बन रही है।
  • ह् + + ।और ऐसी स्थिति में दोनों अपने स्थान से हट जाते हैं।
  • ह् + र्। और उन के स्थान पर अर् यह आदेश हो जाता है।
  • हर्। दोनों को जोड़ कर हर् बनता है।

अब इस रे को महा + ऋषि में रख कर हमारा कार्य समाप्त हो जाता है।

र्षि

अन्य उदाहरणों के द्वारा अभ्यास

  • देव + ऋषि – देवर्षि
  • सप्त + ऋषि – सप्तर्षि
  • राज + ऋषि – राजर्षि
  • वसन्त + ऋतु – वसन्तर्तु
  • मम + ऋद्धि – ममर्द्धि
  • देव + ऋद्धि – देवर्द्धि
  • तव + ऋकार – तवर्कार
  • मम + ऋकार – ममर्कार
  • जनक + ऋणम् – जनकर्णम्
  • देव + ऋणम् – देवर्मम्

अ/आ + ऌ – अल्

इस सूत्र को समझने से पहले इस स्वर को समझने की आवश्यकता है।

ऌ की मात्रा

ऋ यह स्वर यदि किसी स्वर के साथ संहिता करें तो उस की मात्रा ॢ ऐसी होती है। जैसे की –

  • कॢप्ति – क् + ऌ + प् + त् + इ

तान्त्रिकदृष्ट्या देखें, तो ॡ यह स्वर भी अस्तित्व में हो सकता है। परन्तु भाषा में उसका प्रयोग ना के बराबर होने की वजह से वर्णमाला में उसे स्थान नहीं मिल पाया।

अस्तु! चलिए अब हम उपर्युक्त सूत्र को समझने का प्रयत्न करेंगे।

सूत्र का स्पष्टीकरण

यदि सन्धिकार्य करते समय –

  • पूर्ववर्ण अ अथवा आ हो
  • और उत्तरवर्ण हो

तो दोनों के स्थान पर अल् यह आदेश हो जाता है।

उदाहरण

तव + ऌकार – तवल्कार

यहाँ ‘तव’ का अर्थ है तुम्हारा। और ‘ऌकार’ का अर्थ है ऌ इस स्वर की ध्वनि। तो ‘तव ऌकार’ यानी तुम्हारे द्वारा उच्चारित ऌ इस स्वर की ध्वनि। अब हम यहाँ सन्धिकार्य कैसे हुआ इस बात को जानते हैं।

तव + ऌकार। यहाँ व + ऌ ऐसा सन्धि हो रहा है।

  • + ऌ। व का वर्णविच्छेद व् + अ ऐसा होता है।
  • व् + + ।यहाँ हम देख सकते हैं कि अ + ऌ ऐसी स्थिति बन रही है।
  • व् + + ।और ऐसी स्थिति में दोनों अपने स्थान से हट जाते हैं।
  • व् + ल्। और उन के स्थान पर अर् यह आदेश हो जाता है।
  • वल्। दोनों को जोड़ कर हर् बनता है।

अब इस रे को तव + ऌकार में रख कर हमारा कार्य समाप्त हो जाता है।

इस स्वर का भाषा में बहुत कम प्रयोग होता है। इसीलिए ऌ इस वर्ण के उदाहरण बहुत ही कम देखने को मिलते हैं। अतः शालेय छात्र यदि ऌ इस स्वर से बने गिने-चुने शब्दों को याद कर लें, तो लाभदायक सिद्ध होगा।

उपसंहार

इस प्रकार से हम ने इस लेख के माध्यम से गुण सन्धि (Guna Sandhi) को विस्तार से जाना। गुण संधि के ढेर सारे उदाहरण भी हम ने देखे। हमे आशा है कि आप को गुण संधि बहुत अच्छे से समझ में आ गई है। इस के उपरांत भी यदि कोई शंका, समस्या अथवा प्रश्न हो, तो नीचे टिप्पणी (comment) के माध्यम से आप के प्रश्न हम तक पहुंच सकते हैं। कक्षा कौमुदी के माध्यम से आप संस्कृत व्याकरण विषयक नवनवीन लेख पढ़ते रहिए। और हमें अपना प्रेम देते रहिए।

धन्यवाद।