सन्धिप्रकरण में आप का स्वागत है। जब भी हिन्दी, मराठी, संस्कृत आदि भाषाओं में छात्रों को संधि पढाए जाते हैं, तो प्रायः सवर्ण दीर्घ सन्धि ही पढाते हैं। यूँ तो इस सन्धि का नाम सवर्णदीर्घ सन्धि है, तथापि बहुत बार इसे संक्षेप से केवल दीर्घ सन्धि इतना कह देने से काम चल जाता है।
सवर्णदीर्घसन्धि यह नाम कैसे पडा?
महर्षि पाणिनि के द्वारा लिखित अष्टाध्यायी इस ग्रन्थ में इस सन्धि को इस सूत्र के द्वारा बताया गया है –
यदि सन्धिकार्य करते समय पूर्ववर्ण और उत्तरवर्ण, दोनों भी सवर्ण हो, तो दोनों की जगह पर उन दोनों के स्थान पर एक दीर्घ आदेश होता है, जो उन दोनों का सवर्ण हो।
हमे पता है कि उपर्युक्त किताबी व्याख्या बहुतांश नवीन छात्रों को समझने के लिए मुष्किल हो सकती है। आप चिन्ता ना करें हम आप को क्रमशः विस्तार से समझाते हैं। पहले सवर्ण दीर्घ संधि को अच्छे से समझ लेते हैं।
सवर्ण दीर्घ सन्धि के सूत्र और उदाहरण –
तो आईए, हम आप को धीरे धीरे विस्तार से सवर्णदीर्घ सन्धि समझाने का प्रयत्न करते हैं। छात्रों, शिक्षकों तथा अभ्यासकों की सुविधा के लिए हम ने कक्षा कौमुदी के माध्यम से चार सूत्रों को बनाया है।
सवर्ण दीर्घ सन्धि के चार सूत्र –
- अ/आ + अ/आ – आ
- इ/ई + इ/ई – ई
- उ/ऊ + उ/ऊ – ऊ
- ऋ/ॠ + ऋ/ॠ – ॠ
हम छात्रों से अनुरोध करते हैं कि इन चारों सूत्रों को बार बार रट कर याद कर ले। यदि ये चार सूत्र कण्ठस्थ हो जाते हैं, तो सन्धिकार्य बहुत अच्छे से समझ जाता है। वैसे तो ये सूत्र महर्षि पाणिनि के अष्टाध्यायी में नहीं है, परन्तु छात्रों के प्रारम्भिक ज्ञान के लिए हम ने इन बनाया है। इन सूत्रों कण्ठस्थ करने से सन्धि समझना बहुत आसान हो जाता है।
तो इसीलिए
कृपया पहले इन सूत्रों को याद कर लीजिए। बाकी आप की मर्जी॥

सवर्ण दीर्घ सन्धि सूत्रों के अर्थ –
१. अ/आ + अ/आ – आ
यदि सन्धिकार्य में पूर्ववर्ण अ अथवा आ हो और उत्तरवर्ण भी अ अथवा आ हो, तो दोनों के स्थान पर आ यह आदेश प्राप्त हो जाता है।
हम सर्वप्रथम आप को कुछ सामान्य उदाहरण देना चाहते हैं। इन को ध्यान से पढिए। इन उदाहरणों में इस ही सूत्र के प्रयोग से सन्धिकार्य हुआ है –
सवर्ण दीर्घ सन्धि के पहले सूत्र के उदाहरण
- देव + आलय – देवालय
- हिम + आलय – हिमालय
- विद्या + आलय – विद्यालय
- शौच + आलय – शौचालय
- दैत्य + अरि – दैत्यारि
- रावण + अरि – रावणारि
- सूर्य + अस्त – सूर्यास्त
- चन्द्र + अस्त – चन्द्रास्त
- मुख्य + अधिकारी – मुख्याधिकारी
- तथा + अपि – तथापि
- लङ्का + अधिपति – लङ्काधिपति
आप को इन उदाहरणों को पढ कर बहुत कुछ समझ में आया होगा। चलिए अब इन में से एक उदाहरण को ले कर सन्धिकार्य की प्रक्रिया को समझते हैं –
सवर्ण दीर्घ सन्धि के इस सूत्र का सन्धिकार्य
रावण + अरि।
यहाँ रावण इस शब्द का अर्थ हुआ – रावण (लंकापति रावण जिसने सीता का अपहरण किया था) और अरि इस शब्द का अर्थ हुआ शत्रु, दुश्मन। और रावणारि यानी रावण का दुश्मन – राम।
परन्तु यहाँ सन्धिकार्य कैसे हुआ इस बात को जानने का प्रयत्न करते हैं।
- रावण + अरि
यहाँ ण और अ इन दोनों में सन्धि कार्य होने जा रहा है। इसी लिए हम केवल ण + अ पर ही विचार करते हैं।
- ण + अ
यहाँ हम सर्वप्रथम ण का वर्णविच्छेद करते हैं। ण के अन्दर अ छुपा हुआ है। इसीलिए ण = ण् + अ
- ण् + अ + अ
अब यहाँ हम देख सकते हैं के कि अ + अ ऐसी स्थिति प्राप्त हुई है। अब ऐसी स्थिति में हमारा सूत्र काम करता है – अ/आ + अ/आ – आ। जैसे कि हम यहाँ देख सकते हैं कि यहाँ पूर्ववर्ण अ है और उत्तरवर्ण भी अ ही है। ऐसी स्थिति में दोनों भी अपनी जगह से हट जाएंगे।
- ण् +
अ + अ
और इन दोनों के स्थान पर आ यह आदेश हो जाता है।
- ण् + आ
इस तरह से हमारा सन्धिकार्य पूर्ण हो जाता है। अब और कोई सन्धिकार्य नहीं हो सकता। अतः अब हम ण् को आ की मात्रा जोड देते हैं। यानी इन दोनों का संयोग कर देते हैं।
- णा
अब हमारा कार्य लगभग पूर्ण हो चुका है। बस हम ने जहाँ से ण + अ को लिया था, वही पर हमें णा के रख देना है।
- रावण + अरि
- रावणारि
और इस तरह से हमारा सन्धिकार्य पूरा हो चुका है। और हमे उत्तर मिल चुका है। इसी प्रकार से अन्य उदाहरण भी हो जाते हैं।
विद्या + आलय
विद्या + आलय। विद्या यानी ज्ञान और आलय यानी स्थान, घर। और विद्यालय यानी विद्या का घर। यहाँ सन्धिकार्य द्या और आ इन दोनों में हो रहा है।
- द्या + आ
- द् + य् + आ + आ
- द् + य् +
आ + आ - द् + य् + आ
- द्या
इस प्रकार से हमें द्या + आ इन दोनों का योग द्या ऐसा हमें मिला। अब इस को हम हमारे मूल पदों में रखेंगे।
- विद्या + आलय
- विद्यालय
२. इ/ई + इ/ई – ई
यदि सन्धिकार्य में पूर्ववर्ण इ अथवा ई हो और उत्तरवर्ण भी इ अथवा ई हो, तो दोनों के स्थान पर ई यह आदेश प्राप्त हो जाता है।
सवर्ण दीर्घ सन्धि के दूसरे सूत्र के उदाहरण
- मुनि + इति – मुनीति
- नदी + इति – नदीति
- गिरि + ईश – गिरीश
- श्री + ईश – श्रीश
- मुनि + ईश – मुनीश
- मही + ईश – महीश
- मुनि + ईश्वर – मुनीश्वर
- कवि + ईश्वर – कवीश्वर
आप को इन उदाहरणों को पढ कर बहुत कुछ समझ में आया होगा। चलिए अब इन में से एक उदाहरण को ले कर सन्धिकार्य की प्रक्रिया को समझते हैं –
सवर्ण दीर्घ सन्धि के इस सूत्र का सन्धिकार्य
मही + ईश
यहाँ मही इस शब्द का अर्थ हुआ – पृथ्वी, जमीन और ईश इस शब्द का अर्थ हुआ स्वामी, मालिक। और दोनों मिलाकर (मही का ईश – महीश) अर्थ होता है – पृथ्वी का स्वामी। यानी राजा
हम ने महीश इस शब्द का अर्थ तो जान लिया। अब यहाँ सन्धिकार्य से महीश यह शब्द कैसे बना इस बात को समझने का प्रयत्न करते हैं।
- मही + ईश
यहाँ ही और ई इन दोनों में सन्धि कार्य होने जा रहा है। इसी लिए हम केवल ही + ई पर ही विचार करते हैं।
- ही + ई
यहाँ हम सर्वप्रथम ही का वर्णविच्छेद करते हैं। ही के अन्दर ई छुपा हुआ है। इसीलिए ही = ह् + ई
- ह् + ई + ई
अब यहाँ हम देख सकते हैं के कि ई + ई ऐसी स्थिति प्राप्त हुई है। अब ऐसी स्थिति में हमारा सूत्र काम करता है – इ/ई + इ/ई – ई। जैसे कि हम यहाँ देख सकते हैं कि यहाँ पूर्ववर्ण ई है और उत्तरवर्ण भी ई ही है। ऐसी स्थिति में दोनों भी अपनी जगह से हट जाएंगे।
- ह् +
ई + ई
और इन दोनों के स्थान पर ई यह आदेश हो जाता है।
- ह् + ई
इस तरह से हमारा सन्धिकार्य पूर्ण हो जाता है। अब और कोई सन्धिकार्य नहीं हो सकता। अतः अब हम ह् को ई की मात्रा जोड देते हैं। यानी इन दोनों का संयोग कर देते हैं।
- ही
अब हमारा कार्य लगभग पूर्ण हो चुका है। बस हम ने जहाँ से ही + ई को लिया था, वही पर हमें ही के रख देना है।
- मही + ईश
- महीश
और इस तरह से हमारा सन्धिकार्य पूरा हो चुका है। और हमे उत्तर मिल चुका है। इसी प्रकार से अन्य उदाहरण भी हो जाते हैं।
विशेश – बहुत बार महीश इस शब्द को महेश समझा जाता है। हम यहाँ आप को बताना चाहते हैं कि दोनों शब्दों में अन्तर है।
- महीश – मही + ईश (सवर्ण दीर्घ संधि)। पृथ्वी का स्वामी – राजा।
- महेश – महा + ईश (गुण संधि)। बडे देव – भगवान् शंकर।
परि + ईक्षा
परि + ईक्षा – परीक्षा। परि यानी चारों तरफ से (परितः) और ईक्षा यानी देखना। अर्थात परीक्षा इस शब्द का अर्थ होता है – चारों तरफ से देखना। अब चलिए देखते हैं कि यहां सन्धिकार्य कैसे हुआ –
यहाँ रि + ई इन दोनों में सन्धिकार्य होता है।
- रि + ई
- र् + इ + ई
- र् +
इ + ई - र् + ई
- री
इस प्रकार से हमें रि + ई इन दोनों का योग री ऐसा मिला। अब इस को हम हमारे मूल पदों में रखेंगे।
- परि + ईक्षा
- परीक्षा
इसी तरह से आप अन्य उदाहरणों को भी हल कर सकते हैं। अब हम कक्षा कौमुदी पर आगे चलते हैं। अगला सूत्र देखने के लिए।
३. उ/ऊ + उ/ऊ – ऊ
यदि सन्धिकार्य में पूर्ववर्ण उ अथवा ऊ हो और उत्तरवर्ण भी उ अथवा ऊ हो, तो दोनों के स्थान पर ऊ यह आदेश प्राप्त हो जाता है।
सवर्ण दीर्घ सन्धि के तीसरे सूत्र के उदाहरण
उपर्युक्त सूत्र से इन उदाहरणों में सन्धिकार्य हुआ है –
- बहु + उपयोगी – बहूपयोगी
- बहु + उद्देशीय – बहूद्देशीय (मल्टिपरपज़)
- भानु + उदय – भानूदय (सूर्योदय। भानु – सूर्य)
- लघु + उच्चार – लघूच्चार
- लघु + ऊर्मि – लघूर्मि (छोटी लहर)
- गुरु + उपदेश – गरूपदेश
सवर्ण दीर्घ सन्धि के इस सूत्र का सन्धिकार्य
चूँकि पहले दो सूत्रों की प्रक्रिया हम कक्षा कौमुदी पर इस ही लेख में विस्तार से समझा चुके हैं, अतः इस सूत्र को किंचित् संक्षेप में लिख रहे हैं। इस सूत्र की भी प्रक्रिया ऊपरी सूत्रों जैसी ही है।
भानु + उदय
यहाँ नु + उ यहाँ सन्धिकार्य हो रहा है।
- नु + उ
- न् + उ + उ
- न् +
उ + उ - न् + ऊ
- नू
इस प्रकार से हमें नू यह उत्तर मिला है। तो हमारा अन्तिम उत्तर है –
- भानु + उदय
- भानूदय
विशेष – जब र् इस व्यंजन के साथ उ अथवा ऊ इन में से किसी भी स्वर का संयोग हो जाए तो आप को सावधान रहना पड़ेगा। क्योंकि सामान्यतः उ तथा ऊ इन स्वरों की मात्राएं क्रमशः ु तथा ू ऐसी होती है। उदाहरण के तौर पर न् + उ – नु और न् + ऊ – नू।
किन्तु जब बात र् की होती है, तो मामला जरा बदल जाता है। यहाँ उ और ऊ की मात्राएं अलग रूप धारण करती हैं। जैसे कि र् + उ – रु और र् + ऊ – रू। इस उदाहरण में यही बात आप को स्पष्टतया दिख सकती है।
गुरु + उपदेश
- रु + उ
- र् + उ + उ
- र् +
उ + उ - र् + ऊ
- रू
यहाँ आप देख सकते हैं कि किस प्रकार से ह्रस्व उ की मात्रा र् को लगने से रु बनता है। और दीर्घसन्धि होने के बाद जब दीर्घ ऊ की मात्रा र् को लगती है तो रू ऐसा रूप बनता है।
- गुरु + उपदेश
- गुरूपदेश
४. ऋ/ॠ + ऋ/ॠ – ॠ
यदि सन्धिकार्य में पूर्ववर्ण ऋ अथवा ॠ हो और उत्तरवर्ण भी ऋ अथवा ॠ हो, तो दोनों के स्थान पर ॠ यह आदेश प्राप्त हो जाता है।
उदाहरण
होतृ + ऋकार – होतॄकार
यहाँ सन्धिकार्य कैसे हुआ?
- तृ + ऋ।
- इन दोनों में सन्धि हो रहा है।
- त् + ऋ + ऋ
- तृ का वर्णविच्छेद करने पर ऋ यह स्वर मिलता है।
- त् +
ऋ + ऋ- यहाँ इन दोनों ऋकारों के स्थान पर दीर्घ ॠकार की प्राप्ति होगी।
- त् + ॠ
- यानी ये दोनों हटेंगे और ॠ यह आदेश होगा।
- तॄ
- अब त् को ॠ की मात्रा लगा कर हमारा सन्धिकार्य सम्पन्न हो जाता है।
इस प्रकार होतृ + ऋकार से होतॄकार ऐसा सन्धिकार्य सिद्ध होता है।
दीर्घ सन्धि के इस सूत्र के अन्य उदाहरण
- पितृ + ऋणम् – पितॄणम्
- मातृ + ऋणम् – मातॄणम्
- कर्तृ + ऋद्धि – कर्तॄद्धि
- भर्तृ + ऋद्धि – भर्तॄद्धि
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